जाते हुए वक्त को(हर रोज)पीछे छोड कर
उन, असीमित--- घाटिओं के उस पार
चलती रहती हूं-------
कल के सिंदूरी-सूरज का, थामने हाथ
एक सूरज नहीं है---पास मेरे
झोली भर,सात रंगों की गाठें
हैं
एक चांद नहीं है---पास मेरे
आंगन में,टंगी हैं,चांदनी की
झालरें
आसमान तो,बे-इंतहा---है
मेरी गोद ही,छोटी है,बहुत
वादियां,जो हैं,सूनी अभी
भर जाएंगी,फूलों से(बसंत तो आने दें)
आंखे,खुलती हैं---तो
झांकता है,सूरज मेरा,खिडकी से
मेरे
हर रात,चांदनी को ढूंढ ही
लेती हूं
घर की बालकनी से---टिक
उम्र के तकिये पर रख,सिर
खूब नींद लेती हूं,सपनों भरी
कुछ-----सपने,अभी-भी---
दबे पडे,तकिये के नीचे
उन्हें,नहीं मालूम,पता
मेरे चेहरे की झुर्रियों का
बस,रात सोने के बाद
बंद-आंखों में,कुलबुलाते हैं,रोज
अब,क्या यह ठीक होगा
उन्हें, मैं आंख मीड
घोंट दूं---सांस लेने से पहले
वह सांस की डोरी मेरी नहीं(उस पार की है)
मुझे
मालूम है,कि------
कुछ
खाली गागरें भरती नहीं हैं
भरती
रहती हूं,उन गागरों को
जो,आतुर
हैं---भरने को,ड्योढी पर मेरे
मन
के-मनके