Thursday, 26 April 2012

कुछ सुखद यादें—दैनिक समाचार पत्रों की


कुछ दशक पूर्व तक ,समाचार पत्र,हर घर की जरूरत थी,जैसे कि,भोजन-पानी-नींद की जरूरत हर जीने वाले की जीवन-ऊर्जा होती है.
आवश्यक नहीं होता था ,घर का हर सदस्य,पढा-लिखा हो,यदि,एक या दो ही अखबार पढ पाते थे काफ़ी था (अब मैं,समाचार-पत्र से अखबार पर आ रही हूं,क्योंकि, ’अखबार’ वह शब्द है और था,जो जन-मानस के शब्द्कोष में,ऐसे समाहित हो गया था,जैसे कि,उसे ढूंढने की जरूरत ही ना हो) अखबार यानि कि,
नवभारत टाइम्स,दैनिक जागरण,अमर उजाला,पंजाब केसरी---आदि-आदि.
अंग्रेजी भाषा के अखबारों के नामों को ढूंढने के लिये शब्द्कोष में जाने की जरूरत नहीं थी.
घर में एक या दो ही काफ़ी हुआ करते थे,अखबार वांचने के लिये और घर के अन्य सदस्य,खास-खास खबरों से वाकिफ हो जाते थे,अखबार पढा जाता था,अखबार सुना जाता था,अखबार सुनाया जाता था.
सुबह की दिनचर्या का,यह कार्यक्रम,अहम हिस्सा था.हर घर में आंगन हुआ करते थे,मूढे-मुढियों का भी जमाना था,शनेः,शनेः पालिश वाली कुर्सियों का भी,उच्च स्तर वाले घरों में आगवन हो गया था.
चाय की प्यालियों पर प्यालियों के साथ,अखबार के पन्ने भी बंटते रहते थे.जाडों की धूप के टुकडे के साथ,घर खिसकता रहता था,चाय की प्यालियां हाथों में और अखबार के पन्ने बंटते रहते थे,सौगात के रूप में.
कभी-कभी,छीना-झपटी भी हो जाती थी.
कुछ पडोसी,पडोसी के अखबार से काम चला लेते थे,बेशकः खबर बासी ही मिलती थी,परंतु,सुबह का खाना शाम को बासी नहीं होता.ऐसा भी अक्सर हो जाया करता था कि पडोस के घर से,शाम को अखबार सही सलामत भी ना आ पाये,पर क्या करें पडोस-धर्म भी निभाना जरूरी था.
राजनीति का ग्यान वृहद था,घर की अम्मा,चाची,ताई भी जानती थीं-किस पार्टी की सरकार,दिल्ली की गद्दी पर,विराजमान है और उनके प्रदेश में मुख्यमंत्री,क्या-क्या,जूठे वादों का प्रसाद बांट रहा है.
मोरारजी देसाई,स्वंजल पी कर,८० वर्ष की उम्र में भी,चुस्त-दुरुस्त हैं,चन्द्रशेखर जी क्या-क्या जोड-तोड कर रहें हैं.
आजादी के बाद,नेहरू जी का जमाना,उम्मीदों से भरा था,सपने ही सपने बिखरे पडे थे.
जब इंद्रा जी का जमाना आया,तब अखबार कुछ ज्यादा ही रंगीन व गरम हो गये थे.कांग्रेस,कांग्रेस ही नहीं रह गई थी,इंद्रा कांग्रेस हो गई थी.पारलियामेंट में,उनका दखल ही,देश के घर-घर में दखल हो जाता था. क्या-क्या उपाधियों से उन्हें ना नवाजा गया था----मां काली, मां दुर्गा,संसार की सबसे शक्तिशाली महिला—पाकिस्तान को धूल चटाने की सार्मथ रखने वाली महिला—अमेरिका के राष्ट्रपति
निक्सन के साथ वे ही सिर ऊंचा करके साथ खडे होने का साहस रखती थीं.
ये चर्चाएं, सुबह के अखबारों से सरक कर,घरों से निकल कर—चौराहों तक आ जाती थीं.
पान से भरे,गालों में,गुलगुलों की तरह,गुलगुलाती रहती थीं.
शनैः,शैनेः,
छापेखानों से निकल कर,अखबारी वज़ूद—ईडियट-बाक्सों में घुस गया और पहले तो,दस घरों में एक ब्लेकबाक्स (वह भी ब्लेक एंड व्ह्वाइट) का आस्तित्व हुआ करता था,जहां से खबरें निकल कर,आफ़िसों तक पंहुचती थीं,और,शाम को,ब्रीफकेसों में,भरकर,घर-घर,पहुंच जाती थीं. खबरें,कुछ बासी ज़रूर हो जाती थीं,लेकिन इतनी भी नहीं,जैसे कि,सुबह का खाना,शाम को बासी नहीं माना जाता है.
पति-पत्नि को,बांधे रखने का ( कह नहीं सकते किस रूप में) यह एक कारगर शगुल था,सुबह की खट-पट, ईडियट्बाक्स से निकली खबरों पर आकर तिरोहित हो जाती थीं,पति-पत्नि, चाय की प्यालियों के साथ-साथ,खबरी समोसों के चटकारों के साथ,अपने मौनवृतों को तोड ही देते थे.
अखबारी जमाने में,मुख्पृष्ठ इतना कीमती होता था कि,कभी-कभी,छीना-झपटी में उसकी धज्जियां उड जाती थीं.
अधिकतर खबरें, पोजेटिव होती थीं---
जैसे कि,किसान परिवार के बेटे ने गांव की पाथशाला से प्राथमिक शिक्षा पाकर,खेतों में,गुडाई-निडाई कर के,पिता के द्वारा कुछ बीघा जमीन बेच कर,अपने होनहार बेटे को ,उच्च शिक्षा के लिये शहर भेज दिया,और उसने भी अपने माता-पिता की आंक्षाओं को पर लगा दिये—प्रशासनिक सेवा में, प्रथम स्थान पाकर.
घर के,अन्य पढने वाले बच्चों के लिये,ऐसी खबरें उम्मीद की किरण होती थीं.वे बिना कहे ही समझ जाते थे—अपने माता-पिता की आक्षाओं को.
उन्हें भी,असम्भावित मंजिल,संभावनाओं के फूलों से महकती हुई जान पडती थी.
ऐसे ही,देश पर कुर्बान होने वालों की शहीदी महक से,अखबार महकते रहते थे.
बुजुर्ग माता-पिता को,एक कम संसाधन वाला पुत्र,उनकी जीवन भर की मनोकामना पूरी करने में लगा है.अपने बलबूते पर,उनको तीर्थयात्रा पर ले जा रहा है.
घर-घर, श्रवण्कुमारों का आर्भिवाव होने लगता था. कारण बहुत होते थे, समाजिक मर्यादा को बचाये रखना,छुपी हुई आंक्षाएं---
ऐसे ही, भाई ने कच्चे धागों की कीमत,अपना सब कुछ देकर,बहन का घर बसा दिया.
संभावनाएं चारों तरफ थीं,आशाओं के जन्म, नित-नई सुबह होते थे—आभाव,भावों से भर जाते थे.
परंतु,आज स्थिति,इतनी भायाभव हो गई है,कि,बालकनी से अखबार उठाने की इच्छा ही नहीं होती है,एक भय लगा रहता है, कि अखबार खोलते ही,खबरें बलत्कारों की होंगी,हत्याओं की होंगी,घोटालों की होंगी,नेताओं के झूठे वादे होगें,हाइवे पर मौतों के,नंगे नाच होंगे,खून से लथपथ देहों के दर्शन होंगे,और बाकी बचा तो,पेट्रोल की कीमत बढ गई होगी,गैस इतनी महंगी हो गई होगी कि,दो वक्त का खाना बनाना भी मुश्किल हो जाएगा.
मेहमानों की प्रतीक्षा कौन करे,घर के दरवाजे बंद रखने में ही भलाई है.


 .







Friday, 20 April 2012

मिलिअन डालर—Question Number-- 3


वही,सज्जन,जो डालर की धरती पर,२० मकानों के मालिक हैं.
अपने मुहल्ले के( जहां उनका जन्म हुआ, बचपन बीता,जवानी के भी कुछ वर्ष व्यतीत हुए) पडोस के एक घर में कुछ दुखदः घटनाएं होती गईं,अंततः,उनके परिवार में कमाने वाला कोई नहीं रहा,सिवाय,विधवा पत्नि,विधवा बहू व एक शादी योग्य कन्या के,जिनसे,पडोस का हर परिवार करी्ब६० वर्ष से हर-रूप में सहभागी रहा.ऐसी परिस्थिति में वे ही लोग इस मानवीय त्रासदीय को
चटकारे ले कर किस्सों का रूप दे रहे थे.हनुमानजी के रिण से तो मुक्त हो रहे हैं,लेकिन जो जीवित भगवान,उनके घरों की दीवार से लगे सिसक रहे हैं,उनके लिये भविष्य के लिये कुछ आश्वासन भी नहीं हैं,उनके पास.
भगवान ही जाने,२०-२० मकानों का क्या करेगें,रहने लिये तो १०+१० फ़ीट की छत ही काफ़ी है.
और,यदि,बच्चों के लिये इतना छोड कर जाएंगे तो,आखिरकार,ताउम्र,बच्चे करेगें क्या?

Saturday, 14 April 2012

मिलिअन डालर—Question Number--2


यह कोई किस्सा नहीं है,ना ही,किसी पर व्यंग,जीवन का एक कटु सत्य जो हमारे चारों ओर.केक्टस की तरह उग आएं हैं,जो थोडे बहुत फूल थे राहों पर,वे भी इन केक्टस के कांटों से बिंध गये हैं.
मेरे ही परिवार की आदरणीयां महिला के तीनों बेटे ,सौभाग्यवश या अपने प्रारब्ध के प्रितिफल के कारण,अमेरिकीवासी हैं,और डालर की छत्र-छाया में, जीवन-यापन कर रहें हैं.
कुछ वर्ष पूर्वे,वे बिचारे रुपये की छत्र-छाया में ही जी रहे थे,और,लक्षमी के उपासक थे.
आज,वही लक्ष्मी माई हेय हो गईं,डालर के सामने.
उनके बडे बेटे के,डालर की दुनिया में बीस मकान हैं,और,वे ईश्वर को धन्यवाद देते नहीं थकते ,कि, वे ही इस अनुकम्पा के सुयोग्य पात्र हैं.
इसी अनुकम्पा के रिण को चुकाने के लिये,हनुमानजी के मंदिर में १००० रुपये की पूडी-सब्जी(मुश्किल से ३० सेन्ट) १५-२० लोगों के भरे पेटों में डालने की अनुकम्पा कर रहे थे,शायद यह सोच कर कि भगवान के रिण से वे मुक्त हो जाएंगे.
भगवान के सामने भी,डालर की चार-सो बीसी से बाज नहीं आये.
अब,हनुमान जी की विशेष अनुकम्पा का एक और उदाहरण—
जब वे हनुमान जी को माला चढा रहे थे,तभी,किसी ने पीछे से धक्का दे दिया,और,माला सीधे हनुमानजी के चरणों में गिर गई.
अब कोई भी संदेह नही रहा,उनके ऊपर,हनुमान जी की ,विशेष अनुकम्पा है.
वाह री,आस्था,भगवान को भी चूना लगाने से बाज नहीं आती है.

Thursday, 12 April 2012

मिलियन डालर- Question


विभिन्न देशों में,विभिन्न करेंसी का प्रचलन है—विनिमय के उद्द्येश्य से.
हमारे देश में,आज़ादी के के कुछ वर्ष पहले तक,ग्रामीण क्षेत्रों में बारटर सिसटम की प्रणाली भी कायम थी,जो शनेः,शनेः,उद्ध्योगीकरण के फलस्वरूप विलुप्त भी हो गई.
उद्ध्योगीकरण के फलस्वरूप ,देशों की दूरियं भी कम होती चली गईं, और, वैश्वीकरण की अवधारणा ने जन्म लिया.
परंतु यह सब चलता रहा,दुनिया की अर्थ-व्ववस्था,एक स्तर से दूसरे स्तर पर कदम रखती चली गई,हर देश की एक निश्चित मुद्रा,(’करेंसी’ )अपने आस्तित्व में,विशिष्ट व मजबूत होती गई.
परंतु,प्रत्येक देश की मुद्रा की कीमत,केवल,डालर की तराजू के पलडे में ही रख कर,आंकी जाती है.
हालांकि,गाहे-बगाहे,हमारे देश का गरीब रुपया भी,थोडी सी उछाल ले कर,डालर पर हावी हो जाता है,परंतु,दूसरे दिन ही अपनी वस्तुस्थिति में आ जाता है,या, यूं, कहें कि अपनी औकात पर आ जाता है.
खैर,कुछ घंटे ही सही,हम भारतीय,एक गुमान लिये,अपनी-अपनी मुंडी को,कुछ ऊंचा कर ही लेते हैं.
बेशक,करेंसी के ट्रेक पर हम हांफ रहे होते हैं.
अब,देश की वह भाग्यशाली पीढी,जो अपने माता-पिता की जीवन भर की तपस्या के फलस्वरूप, ’डालर’ की छ्त्रछाया में पहुंच गई या हो सकता है,उनका  प्रारब्ध ही जोर मार गया ,और, वे भी,डालर की दुनिया में, सात समुंदर पार कर गये.
पर,कुछ भी हो,भारत का गणित अपने साथ ले जाना नहीं भूले.
जब भी,माटी की सुगंध उन्हें बुलाती है,या यहां की चिल्ल-पौं,जिसमें उन्होंने अपने कुछ वर्ष गुजारे,गाहे-बगाहे,वे उन दिनों को कोसते अवश्य हैं,फिर भी उनके आकर्षक से वे मुक्त नहीं हो पाते हैं,और,अमेरिकी ’माल’ से खरीदे,सूट्केसों को रोल करते हुए,भारत की धरती पर कदम रख ही देते हैं,और कदम रखते ही,भारत का गणित जो सुसुप्त अवस्था में पडा होता है,तुरंत,जागृत हो जाता है,और फिर,एक बिसलरी की बोतल जो महज़ १२ रुपए की होती है वह भी उन्हें,सेन्ट की नज़र आने लगती है.
५०रुपए का बर्गर,१डालर का नज़र आने लगता है,गुणा-भाग के चक्कर में भूल जाते हैं,जिस माटी की महक,उन्हें १०,००० किलो मीटर की यात्रा करा कर,सात समुंदर पार करा कर यहां तक ले आई,जिसके लिये,उन्होंने,२-३ वर्ष छुट्टियों की बचत की,बाकी रह गई,डालर की पकड.
जो,जकडे रहती है,ताउम्र,कमाते डालरों में हैं,और,खर्च रुपयों में करते हैं.