Monday, 31 October 2011

बर्फ़ के फ़र्श पर

जिस,बर्फ़ के फ़र्श पर
हम-तुम,चले थे,चार कदम,साथ-साथ
                वो,अभी पिघली नहीं है---
बेशक: ,छूटे हुए कदमों के निशां,दिखते नहीं हैं
पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर---------
इंतज़ारों में,नज़र आते हैं,अब तलक—
                    बेशक:,वो हमारी सांसों के,अनछुए गीत,कुछ खामोश से हैं
                    पर,उस पिघली हुई बर्फ़ के फ़र्श पर----
थिरकते हैं,अब तलक-----
बेशकः,हाथों की हथेलियों में,वो,साथ जीने-मरने की कसमें,हैं दफ़न
पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर------
उनकी मज़ारों पर, फूल महकते हैं,अब तलक----
                     बेशकः,आंखों से टपकी,चार बूंदे,गिरी थी,जो जुदाई में
                     पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर--------
                     हकीकतों के बुलबुलों सी,झलकती हैं अब तलक---
बेशकः,दूर बर्फ़ की चोटियों के उस पार से,चटकती हैं      ,हसरतें
पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर---
इंद्रधनुष सी झिलमिलाती हैं,अब तलक----
                                    तुम,आओ कि ना आओ
                                    हर्ज़ कोई भी नहीं-----
                                    पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर---
                                    जो,अभी पिघली नहीं है-----
                                    ढूंढ ही लेंगे उन्हें हम,कभी ना कभी----
                                    उन,कदमों के निशां,जो पिघले नहीं हैं---
                                                                   मन के-मनके     
  

Friday, 28 October 2011

एक प्रयोग

बन,विहग,वन-वन,विरहू
पीहू-पीहू,पन----पीवूं
प्रिय-पनघट पर
                         तेरी,तृप्ति-तरण,तट-तक
                         अंतरमन,आल्हादित-आला
                         हिय-होय,हाला-हालाहल
       मन में,मादक,मधुमय-मधुशाला
मोर-मयूर,मोरा मन,मन में मस्त-मस्त
मन,मुक्त-मुक्त,मयूरी-मोरा
मन के-मनके


Sunday, 23 October 2011

सुख की खोज

जहां देखें,मनुष्य भाग रहा है,दौड रहा है,हांफ रहा है,क्यों?किसके लिये?
वैसे तो,प्रकृति ने,इस संसार में इतने संसाधन दिये हैं,यदि वह,प्रकृति रूप से जिये तो उसकी सभी ज़रूरते पूरी हो सकती हैं,वह सुखी व तृप्त भी हो सकता है,काशः ऐसा हो पाता.
पक्षियों के लिये,आश्रयों की कमी नहीं है,एक पेड पर घोंसला ना सही तो किसी खंडहर की बिखरी दीवारों में ही सही,उन्हें आश्रय मिल ही जाता है.
वे,चहचहाते हुये,नीड का एक-एक तिनका चुनते हैं,मनोयोग से एक-एक तिनके को सहेज कर,घोंसला बना ही लेते हैं,वहां उनकी लगन व उत्साह में कोई कमी नहीं होती है,वे आने वाले अंधड की कोरी कल्पना में,हतौत्साहित नहीं होते हैं,यदि ऐसी अनहोनी घट भी जाय तो गले में,फांसी का फंदा भी नहीं लगाते है.
बस,फिर वही चहचहाट,वही,तिनकों का चुनना,वही फ़ुदकना और,फिर एक नया घोसला तैयार.फिर बारी आती है,अंडे देने की—वही चहचहाहट,वही फुदकन.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
फिर भी,इन शहरी-शैली ने वास्तविक सुख को नहीं जाना,हां,सुख के पीछे दौड ज़रूर रहें है.हर इंसान दुःखी है,इस दुःख से छुटकारा पाने के लिये—और-और,सुख चाहिये.
ओशो कहते हैं---------
क्या यह उचित होगा,दुःख भीतर है,उसे मिटाने के लिये हम सुख,और सुख खोजें?
या,यह उचित होगा कि,दुःख भीतर है,तो उस दुःख का कारण खोजें,उस कारण को मिटाएं,मुक्त हो जाएं?
क्या यह वैग्यानिक होगा,बीमारी हो तो,उसके कारण को खोज कर,बीमारी को नष्ट करें?
                             या
काल्पनिक स्वास्थय की खोज में,भटकते रहें?
                                                मन के--मनके

Monday, 17 October 2011

मैने,तुझको देखा है------

मैने,तुझको ---      देखा है
बंद पलकों की चिलमन से यूं,
                       नीलों फूलों की ,आभा नीली सी
                       पोरों को, नीली सी कर गया है,तू
मैने,तुझको ---      स्पर्श किया है
बंद पलकों की,चिलमन से,यूं,
                       पीपल के पत्तों की ,करतल में
                       धुन गाता,मंदिर में,भजन सरीखा,तू
मैंने,तुझको----ध्याना है,स्तुति सा
बंद पलकों की चिलमन से,यूं
                      कडवी सी,नीम-निबोरी सा बन,स्मृतियों में
                      मीठी-मिश्री सा,मुंह,घुला-घुला सा,तू
मैंने तुझको--- चखा है,मिश्री की डली सा
बंद पलकों की चिलमन से,यूं
                      बन, विहग की परवान,क्षितिज में
                      सपनों की पांत,धवल सी,मुट्ठी में,आया तू
मैंने तुझको---- देखा है,सपनीली आशाओं में
बंद पलकों की चिलमन से,यूं
                        मंद-मंद,पवन-बसंती,सरसों के खेतों में,आवारा सा
                        गोरी के घूंघट में,मुस्कान बना,बसंती सा,तू
मैंने तुझको--- झांका है, गोरी के घूंघट में
बंद पलकों की चिलमन से,यूं
                        इंद्रधनुष के रंगों की ,फेरी कूची
                       कितने जाल,धरा की चुनरी पर,बुनता सा ,तू
 मैंने तुझको--- ओढा है,दुल्हन की चुनरी सा
बंद पलकों की चिलमन से,यूं
                        भोर,हुई नारंगी सी,जब
                        हर दरवाजे पर,दस्तक देता सा,तू
मैंने तुझको--- पाया है,हर दस्तक की आहट में
बंद पलकों की चिलमन से,यूं
                         सांझ ढले, ठंडी लपटों सा बन
                         दे गया,पुनः आने का आश्वासन,तू
मैंने तुझको--- छुआ है,भोर की किरणों में
बंद पलकों की चिलमन से,यूं
                        मैंने ,तुझको देखा है--------
                                                    मन के--मनके                                                                                                                         

       

Tuesday, 11 October 2011

नुक्ते—ज़िन्दगी के,

ये,राहों के सिलसिले हैं,दोस्त
                        सराहों में ठहरे, राहगीरों की तरह
                        कुछ देर का साथ था,
                        एक राह,कटती है ,उस तरफ
                        इस राह पर,हम हो लिये-----
चार रोज़ा प्यार की मज़ार पर
पिघलते हैं आंसू,तमाम उम्र के
पीछे छूटी राहों के गुबार में
परछाई भी तुम्हारी,अब, नज़र आती नही----
                         हथेलियों में,अब तलक
                         दौडती हैं,तुम्हारे लहू की,गर्माहटें
                         बंद है,मुट्ठी मेरी, अब तलक
                         छुडा कर हाथ,तुम ही,चले गये----- 

Wednesday, 5 October 2011

सूरज का-एक कतरा-सपना सा

शीशे की खिडकी से,सरक
निःशब्द कदमों से चल
             सूरज का,एक कतरा
             मां के आंचल सा, मुझको ढक गया
कभी ऐसा लगा कि
क्लांत-थका सा चूर होकर
               लुढकते पैरों से ,नन्हा सा चल
                मां के आंचल से,मुंह ढक कर,सो गया
कुछ दिन हुए------
   दहकता आग का गोला
   आसमान से,नीचे उतर
                         घर के,कोने-कोने को
                         कर रहा था,भस्म
   उनींदी सी पडी, भविष्य की गोद में
   आज,पहली बार------मैने
                        धधकते------आज को
                        अपनी गोद में,भर लिया
   आग की लपटों से,घिरा
   एक सूरज, बीते दिनों का
                       भस्म करने को,बेताब था
                       हज़ारों मील,पीछे रह गया----
                                                    मन के--मनके         
  

Saturday, 1 October 2011

अह्सास—बीती यादों के साथ जीने का

, एक गाना,जिसकी धुन,जिसके बोल,बोल के एक-एक शब्द दिल पर टंके,सुर्ख गुलाब की खुशुबू की नांई,मन के कण-कण को महकाते रहे हैं.
वह गाना---
           याद ना जाये,बीते दिनों की—
           दिन जो पखेरू होते,पिंजडे में,मैं रख लेता
           पालता उनको जतन से,मोती के दाने देता
           सीने से रहता लगाये----------
जिंदगी,अह्सासों की लहरों पर,बहते तिनकों जैसी है---कभी लहरों से लिपटी सी,कभी लहरों पर सोई सी,कभी लहरों में खोई सी.
हमारे जीवन में,यादों का बहुत महत्व है,वे हमें अपनी सुगंध के साथ,कटीली राहों पर भी चलने का साहस देती हैं.
वे हमें,हमारे दुर्भावों को याद दिला कर,प्रयश्चित करने का भी मौका देती हैं.
वे,कभी-कभी,जीवन की ऐसी धरोहर भी बन जातीं हैं,जो पीढी दर पीढी,परिवार की धरोहर की मंजूषा बन,एक हाथ से दूसरे हाथ तक,हस्तांतरित होती रहती हैं,जिन्हें,हर आने वाली पीढी याद कर,अपने अतीत को जान पाती है,गौरांवित हो पाती है, और, अपने उदगम की गंगोत्री तक जाने का रास्ता भी उन्हें मिल जाता है,जहां से उनके परिवार-रूपी गंगाजली-धारा बह रही है.
हालांकि,जरूरी नहीं कि यादें,सुहानी ही हों,जरूरी नहीं,यादें गौरांवित ही करें,जरूरी नहीं,यादें आने वाली पीढियों की धरोहर ही हों,जिन्हें सहेज कर रखना,समाज में सम्मानीय ही हो.
हां,यह सत्य है,मनुष्य यादों के अह्सासों की छाया में,हर पल जीता है.
बुधिष्ठ,महापुरुषों का कहना है—अतीत में जीना नासमझी है.
परंतु,क्या कभी हम,बीते कल की सीढी पर पैर रखे बिना,आज की सीढी पर खडे हो पाएंगे---संभव नही.
वह पिछली सीढी का स्पर्श,हमारे तलुवों के,बहते लहू की गर्मी में,पहुंच ही जाते हैं और वह गर्माहट,लहू की बहती धारा का हिस्सा बन ही जाती है.
अब,जीवन-रूपी बगिया में,फूलों के साथ,काटें भी उग आते हैं—तो फूलों के साथ काटों को भी स्वीकार कर लेना चाहिये.
हां,कभी कोई कांटा चुभ भी जाय तो पोरों पर झलकी बूंदों में अपने अक्श को देखने की कोशिश ज़रूर होनी चाहिये और,उन कर्मों के केक्टस को समूल नष्ट करने की कोशिश रहनी चाहिये,ताकि,आने वाली पीढी,उन जहरीले कांटो के दंश से मुक्त हो जाय.
दिन जो पखेरू होते,पिंजडे में रख लेता-----मोती के दाने देता,सीने से रहता लगाये-----
                                  मन के--मनके