मां की कोख में,बीज-रूप में,जीवन-स्पंदन,फिर वही ईश्वर की परिकल्पना है,जिसे हम उस मृग की तरह ढूंढते हैं,जंगल-जंगल भटकते हैं,जो अपने सिर में छुपी कस्तूरी की महक के पीछे भटकता
रहता है.
जब पहली बार मां की कोख इस स्वर्गीय-स्पंदन के अह्सासों से भर जाती है,तो विचार बनने बंद हो जाते हैं,सब कुछ कहना चाह कर भी,कुछ नहीं कह पाते हैं,व्यक्त,अव्यक्त हो जाता है और,अव्यक्त,व्यक्त हो जाता है.अह्सास पहेली सी बन जाती है,विराट हो जाता है हर अह्सास.
एक संपूर्ण जीवन,इस छोटे से स्पंदन में कैसे समा गया,कहां से आ गया,वह जीवन जो,धरती परअपना पहला कदम रखते ही ना जाने दुनिया की चाल को कैसे मोड दे? इसी स्पंदन में यहां संत,बुद्ध,महावीर,कबीर,महायोद्धा सिकंदर,अकबर,शाहेजहां जिन्होंने जीवन की परिभाषाएं रचीं. दूसरी ओर ऐसे-ऐसे,धूर्त-पापी भी,इस स्पंदन में समां गए जिन्होंने मानवता को ज़लील किया और इसी मानवता का नाश भी किया.
फिर,एक बार उस ईश्वर के आगे नतमस्तक होना चाहिए कि एक बूंद,एक स्पंदन में उसने अपनी कलाकारी दिखा दी,अपनी माया फैला दी.