हम होश संभालते ही,दो दूनी चार के पहाडे के चारों ओर चकर-घिन्नी खाता रहता है और सारा जीवन बडी-बडी खुशियों व असम्भव सपनों के चक्रव्यूह मे उलझा रहता है.
न जाने छोटी-छोटी खुशियां,छोटे-छोटे पलों में तिरोहित होती रहती हैं,हम बडी-बडी खुशियों की तलाश में हर पल मरते रहते हैं और इतने भ्रमित रहते हैं कि खुशियां व आशायें पास से हो कर सरक जातीं हैं,बिना किसी आहट के.
इस पल का भरोसा नही,योजनाएं मरने के बाद तक की बनाने में जुटे रहते हैं.
कोठी बन जाती है,दरवाजे पर दहेज़ मेम आई लम्बी कार खडी हो जाती है,पेटों को काट कर छोटी-छोटी खुशियों के गले घोंट कर,फ़िक्स डिपोजिटों में रुपए दो दूनी चार होने के लिए कैद कर दिए जाते हैं.
आज कुछ ऐसा ही वाकिया देखने को मिला.देख व सुनकर हसीं भी आई और समझदारी पर भारी पडती नासमझी भी देखने को मिली.
किसी कार्यवश बेंक जाना हुआ वहीं मेरे पुराने परिचित अपने बेटे के साथ मिल गये.
औपचारिकता निभाने के बाद,मालूम हुआ उन्हें छः माह में दो हार्ट-अटेक पड चुके हैं,दो-तीन बार निमोनिया से भी पीडित रह चुके हैं,इसके अलावा एक बडी सर्जरी से भी गुज़र चुके हैं.
उनकी पत्नि भी सालों से अस्वथ है.बहुत सी बीमारियों से पीडित हैं.
खैर,ये सज्जन अपनी जमा-पूंजी का नोमिनी करवाना चह रहे थे,उसके लिए अपने बेटे का प्रपोजल लेकर आए थे.
उनकी दलील थी,चूंकि पत्नि अस्वस्थ रहती हैं,कभी भी जा जकती हैं अतः बेटे को नोमिनी बना दिया जाए.
वाह री समझदारी,वे स्वम दो हार्ट अटेक झेल चुके हैं फिर भी पत्नि के पहले जाने का इन्तजार कर रहे हैं.
अब उन्हे पिचहतर साल की उम्र में कौन समझाए जीवन का गणित क्या है?
जीवन में अनेकों त्रासदियां देखने के बाद भी मृत्यु का रहस्य क्यों समझ नहीं आता?
मन के-मनके