Thursday 12 February 2015

मनुष्य के प्राण आतुर हैं---


अमेरिका के मनोवैग्यानिकों ने हिसाब लगाया है कि न्यूयार्क जैसे नगर में केवल १८% लोग स्वस्थ कहे जा सकते हैं ( यह आंकडा उस समय का जब ओशो द्वारा दिये गये प्रवचनों में यह बात कही गयी थी जो अब मौलिक रूप से यह संकलित है उनकी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक ’संभोग से समाधि’ में )

यह सम्भावना है कि आने वाले सौ वर्षों में पूरी मनवता ही विक्षिप्त हो जाय और फिर हमें पागलखानों की जरूरत ही ना रहेगी क्योंकि कौन पागल है—यह पहचान कैसे होगी कि कौन पागल है?

अशांत आदमी इसलिये अशांत है क्योंकि वह अशांति में जन्मता है---इसलिये बुद्ध हार गये,महावीर हार गये क्राइस्ट हार गये---भले ही हम शिष्ट्टतापूर्ण यह ना कह पाएं.

पिछले महायुद्ध में तीन करोड लोगों की हत्या की गयी—उसके बाद प्रेम और शांति की बात करने के बाद दूसरे महायुद्ध में हमने सात करोड लोगों की हत्या की----शांति चाहिये---शांति चाहिये  और अब हम तीसरे महायुद्ध की तैयारी में जुटे हुएं हैं.

आइंस्टाइन से एक बार किसी ने पूछा कि तीसरे महयुद्ध में क्या होगा?

उनका जवाब था---तीसरे महायुद्ध के बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता परंतु चौथा युद्ध कभी होगा ही नहीं.

करण यह ही है—मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया बेहूदी है,एब्सर्ड है. (ओशो)

आइये---कुछ पंक्तियों को मैने चुना है या कोशिश की है कि ’प्रेम’ को कह सकूं—ओशो के माध्यम से---क्योंकि आज इस शब्द को लेकर हमारे मनों जो उथल-पुथल और भ्रांतियां भूचाल पैदा किये ही रहती हैं और हम प्रेम में हो कर भी प्रेममय नहीं हो पाते हैं और कुछ होना चहिये और कुछ हो जाता रहा है---विशे्ष रूप से आज की युवा पीढी इसी नासमझी के कारण भटक रही है,शोषित हो रही है और शनेः शनेः गर्त में जा रही है---जो एक मानवीय त्रासदी है.

ओशो अपनी इस बात को---एक महान सत्य को एक बहुत ही साधारण कहानी से यूं शुरू करते हैं---यह कहानी बहुचर्चित कहानी है---कि यह धनुष किसने तोडा?

एक किसी पाठशाला में महानिरीक्षक आये और एक कक्षा में निरीक्षण के लिये प्रवेष किया और बच्चों से एक सीधा-सादा प्रश्न पूछा—शिव का धनुष किसने तोडा?

एक बच्चे ने हाथ उ्ठाया—मैंने नहीं तोडा क्योंकि मै तो १५ दिन से अवकाश पर था.

निरीक्षक ने शिक्षक की तरफ देखा---शिक्षक ने बेंत उठाते हुए कहा कि श्रीमान इसी ने ही तोडा होगा—पाठशाला में टूटी हुई १०० वस्तुओं में से ९९ यही तोडता है.

निरीक्षक बडा हैरान सो वह प्रधानापध्याक के पास गये---और घटना वयान की.

परंतु उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब उन्होंने भी इस मामले को यूं कह रफा-दफा करने की कोशिश की कि बात आगे बढाने से कोई फायदा नहीं है---हम एक नया धनुष रखवा देंगे.

बात यहां ही समाप्त नहीं हो जाती.

निरीक्षक किस मुगालते में थे और बात कहां तक आकर रुकी???

मनुष्य की सामान्य कमजोरी इसी कहानी में प्रगट होती है---कि वह अपने अग्यान को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता.हम कुछ जाने ना जाने लेकिन जानने की घोषणा अवश्य करते हैं.

यही बात ’प्रेम’ के बाबत भी लागू होती है.

हम एक कार को ब-खूबी चला लेते हैं परम्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके इंजन के बारे में भी ब-खूबी जानते हों.

और हम जीवन जीते तो हैं---लेकिन उसके विषय में कुछ भी नहीं जानते.

अनुभव से ्गुजर जाना पर्याप्त नहीं जानने के लिये.

ओशो—और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जीवन में और जगत में प्रेम (काम—ऊर्धगामी हो कर प्रेम में पर्वर्तित होता है) से बडा ना कोई रहस्य है और ना ही कोई और अंतिम सत्य.

इसलिे जीवन के इन दो महान सत्य (क्षमा करें सत्य तो केवल एक ही है???) के प्रति दुर्भाव को त्यागें.

ओशो—समझने के लिये,बोधपूर्ण जीने के लिये,मेरी अपनी यह धारणा है कि महावीर या बुद्ध या क्राइस्ट आक्स्मिक रूप से पैदा नहीम हो जाते यह उन दो व्यक्तियों के परिपूर्ण ्व्यक्तियों के पूर्ण मिलन का परिणाम है.

मनुष्य के प्राण आतुर हैं ऊंचाइयों को छूने के लिये,आकाश में उठ जाने के लिये,-----आदमी की आत्मा रोती है और प्यासी है---और आदमी कोल्हू के बैल की तरह उस चक्कर में घूमता है--- उसी में समाप्त हो जाता है----क्या कारण है?

अंत में मैं कह देता हूं—सत्य से आंख चुराने वाले मनुष्य के शत्रु हैं.  (ओशो)

( आज की नई पीढी ही नहीं वरन प्रो्ढ पीढी भी भ्रमित है---इस सत्य के प्रति कि इस जीवन का आाधार-बिंदु एक ऊर्जा है जिसे हम ’काम’ ऊर्जा के नाम से जानते तो हैं लेकिन ठीक उसी तरह जैसे एक कार का चलाना---लेकिन कार चलाना स्वीकार तो कर लेते हैं इसे हम स्वीकार भी नहीं करते---और इससे मुंह छुपाने की प्रवर्ति ने मानवीय जीवन को नार्कीय बना ही दिया है. आज के संदर्भ में इस विषय पर ओशो की विचार-प्रपंचा जानने योग्य ही नहीं है वरन मानने योग्य भी है ताकि समाज में व्याप्त नार्कीय विस्फोटों को हम शांत कर सकें और इस नकारात्मक ऊर्जा को सही दिशा दे सकें---  ताकि आज की युवा-ऊर्जा सकारात्मक हो मानवता को सुंदर,सुगंधित व जीने योग्य बना सके और स्वम भी परिपूर्ण हो सके.

उपरोक्त शब्द,विचार व सत्य को छूती हुईं पंक्तियां उद्धरित की गयीं---संभोग से समाधि—से.)

पुनःश्चय:

१४ फरवरी वेंलनटाइन-दिवस के रूप में मनाने का प्रचलन जोरों पर है---और यह हमारे ग्रामींण क्षेत्रों में भी पैर पसार रहा है---बुरा नहीं है समय के साथ अपने-आप को व्यक्त करने के तरीके भी बदलते ही हैं—प्रेम का इजहार हमेशा ही होता रहा है---एक सत्य जो साश्वत है---परम्तु इस सत्य की खूबसूरती को विकृत ना किया जाय---ऐसा मेरा मानना है—इसे जाने,समझे और इसकी गरिमा को अपने प्रेम से सींचे जरूर ताकि अपने को पूर्ण कर सकें---इसे स्वीकारें इसकी पीडा के साथ भी---गुलाब के फूल कांटों के साथ ही होते हैं---देसी गुलाब—सत्य भी देसी ही होता है---उसको बगैर कांटों के जाना नहीं जा सकता.

मेरी सभी युवा-पीढी को शुभकामनाएं---वेंलनटाइन-दिवस की.

मन के-मनके

 

 


                                          






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